दुर्भाग्य से भगत सिंह को बहुत कम उम्र में फांसी मिली. परन्तु आज के भारतीय स्वाभाविक रूप से यह कल्पना करना चाहेंगे की अगर उन्हें साजिश के तहत “केंद्रीय अस्सेम्ब्ली बम केस” में फसाया नहीं जाता और वो जीवित रहकर स्वतंत्रता की लड़ाई को आगे बढ़ाते तो क्या होता? हमने इतिहास को फिर से पढ़ा और ऐसी ही कल्पना के साथ घटनाक्रम को देखने की कोशिश की. आइये जानते हैं की भगत सिंह जी को फांसी नहीं होती तो क्या हो सकता था |
हम कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं के माध्यम भगत सिंह के बारे में जान सकते हैं :—
1) जीवन परिचय
2) उनकी प्रमुख कृतियां
3 ) प्रमुख कार्य
4)प्रमुख नारे
5 ) राजनीती में योगदान
6 ) साथी समूह
8) गांधी जी के सम्बन्ध
9 ) फाँसी
10 ) निष्कर्ष
जीवन परिचय:—
देशभक्त, अध्यनशील विचारक, कलम के धनी लेखक, पत्रकार एवं समाजवाद के प्रथम व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध भगत सिंह का जन्म 27 सितम्बर 1907 ई को लायलपुर जिले बंगा में हुआ | जिन्होंने महज 14 वर्ष की उम्र में क्रांतिकारी रूप धारण कर लिए थे 13 अप्रैल 1919 को हुयी जलियाँवाली बाग़ हत्याकांड के सामूहिक नरसंहार ने उनके बाल मन को इतना प्रभावित किये की सरकारी विद्यालय के पुस्तकों एवं विदेशी कपड़ो को जला डाले| हम कह सकते हैं की ये क्रांतिकारी प्रवृत्ति उन्हें विरासत में मिली थी क्योंकि उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे, और बढ़चढ़ कर भारत की आजादी में सहयोग दे रहे थे| लाला हरदयाल द्वारा 1913 ई में स्थापित ग़दर पार्टी उस समय जिसका संचालन करतार सिंह कर रहे थे वे दोनों इस पार्टी के सदस्य भी थे | अपने इस कुशाग्र एवं तेज बुद्धि के कारण ही उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर 1920 ई में गाँधी जी द्वारा चलाये जा रहे अहिंसा आंदोलन में भाग लिए और विदेशी सामानों के बहिष्कार और जलाने के कारण उनकी पोस्टर छपने लगी थी |
भगत सिंह सिर्फ विद्रोही क्रांतिकारी ही नहीं थे बल्कि वे एक बहुत ही अच्छा वक्ता, पाठक एवं लेखक भी थे वे एक बहुभाषी ज्ञाता भी थे जिनमें हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू एवं पंजाबी आदि भाषाएँ उन्होंने बटुकेश्वरदत्त से सीखी थी| ये भाषाएँ ही उन्हें कुशल वक्ता बनने में काफी सहायता किये जिसके कारण वे अपनी भाषणों से युवाओं में प्रेरणा की ज्वाला भरने की कोशिश करते थे ताकि अंग्रेजों को अपने देश से बाहर निकल फेंकने में कामयाब हो सके| वे सिर्फ क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि कल और आज के युवाओं मार्गदर्शक एवं प्रेरक भी रहे और इसके साथ ही साथ उन्होंने कई सम्पादन और लेखन कार्य भी किये हैं| उनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित है:—
- एक शहीद की जेल नोटबुक (सम्पादन:भूपेंद्र हूजा)
- सरदार भगत सिंह: पत्र और दस्तावेज (संकलन: वीरेंद्र संधू)
- भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज (सम्पादक: चमन लाल)
16 फरवरी 1919 को लागू रौलेट एक्ट जिसे काला कानून भी कहा जाता है जिसमे भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेने वाले सभी व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया जाता था बिना किसी वॉरन्ट के जो अंग्रेजो के खिलाफ आवाज उठाता था इसी के विरोध में पंजाब के अमृतसर जिले के जालियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 ई को बैशाखी के दिन सभा चल रही थी जिसमें बहुत सारे लोग अपने परिवार के साथ मेला घूमने भी आये थे परन्तु नेता की भाषण सुनकर सारे लोग एक जगह इकठ्ठा हो गए, इसी बीच पिस्तौल से लैस सैनिक मैदान में आ गए और जनरल डायर के आदेश से उन निहत्थों पर गोलियां चला दी जिनमें से १० मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। जलियांवाला बाग कभी जलली नामक आदमी की संपत्ति थी। मरने वालों के आंकड़ों के बारे में सभी लोगों की अलग अलग मत है, अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या ३७९ बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम १३०० लोग मारे गए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या १५०० से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या १८०० से अधिक थी। जबकि ब्रिटिश अधिकारी के अभिलेखों के अनुसार 200 लोग घायल हुए और 379 ही शहीद हुए हैं जिनमें पुरुषों की संख्या 337 और नाबालिग लड़के 41 एवं एक 6 – सप्ताह के बच्चा था जो सही आंकड़ा नहीं दिखाता है क्योंकि एक तो उस दिन मेले में घूमने के लिए लोग परिवार के साथ गए और दूसरी बात की जनता जनसभा के लिए इकट्ठा हुए थे और वहाँ से बाहर निकलने के लिए एक मात्र रास्ता था जो बंद क्र दिया गया था जिसके कारण बहुत से लोग कुँए में कूदकर जान दे दिए थे | इस हत्याकांड ने उन्हें अंदर से इतना झकझोर दिया की उन्होंने सिर्फ अपनी पढाई ही बीच में नहीं छोड़ी बल्कि और भी ऐसे बहुत काम किये इसके लिए वे अंग्रेजो के नजरो में आ गए उनके पोस्टर छपने लगी जिसके कारण अंग्रेज उन्हें तथा उनके साथियों को पड़ने के लिए धरपकड़ का काम भी शुरू कर दिए | अंग्रेजो से बचने के लिए उन्होंने न सिर्फ दाढ़ी हटवाए बल्कि उन्होंने अपने सर भी मुंडवा दिए जो सिखों के लिए उनके धर्म के खिलाफ था उनके लिए उनका धर्म एवं कर्तव्य सब कुछ देश की आजादी से जुडी थी उन्होंने अपने से छोटी -सी उम्र बहुत मत्वपूर्ण कार्य किये जो हम निम्न बिंदुओं के माध्यम से जान सकते हैं|
प्रमुख कार्य
1) 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग़ में बैशाखी के दिन रॉलेट एक्ट के खिलाफ हो रहे सभा में भारतीयों का जनसामूहिक नरसंहार से प्रभावित होकर उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर ” नौजवान सभा “की स्थापना किये |
2 ) भगत सिंह ने सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया|
3) भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अफसर जेपी सांडर्स को मारा था। इसमें चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी।
4) क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे।
भगत सिंह की कुछ महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ है जो कल,आज और आने वाला कल के युवाओं के लिए हमेशा प्रेरणादायी होगा जो इस प्रकार है :–
- इंकलाब जिंदाबाद
- साम्राज्यवाद का नाश हो।
- राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है मैं एक ऐसा पागल हूं जो जेल में भी आज़ाद है।
- ज़रूरी नहीं था की क्रांति में अभिशप्त संघर्ष शामिल हो, यह बम और पिस्तौल का पंथ नहीं था।
- बम और पिस्तौल क्रांति नहीं लाते, क्रान्ति की तलवार विचारों के धार बढ़ाने वाले पत्थर पर रगड़ी जाती है।
- क्रांति मानव जाति का एक अपरिहार्य अधिकार है।
- स्वतंत्रता सभी का एक कभी न ख़त्म होने वाला जन्म-सिद्ध अधिकार है।
- श्रम समाज का वास्तविक निर्वाहक है।
- व्यक्तियो को कुचल कर, वे विचारों को नहीं मार सकते।
- निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं।
- प्रेमी, पागल, और कवी एक ही चीज से बने होते है
भगत सिंह का राजनीती में योगदान :
जब पूरा देश ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, कुछ नेता ऐसे भी थे जो विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे. इस सलाह के जवाब में भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से यह महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था |कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे, जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा’ 1916 में कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र द्वारा देशभक्ति की लिखी कविता की ये पंक्तियां देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपना सर्वस्व न्यौछावर करने खासकर भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु के लिए बेमानी साबित हो रही हैं। भगत सिंह आजीवन सामाजवाद अथवा साम्रज्यवाद के लिए लड़ते रहे लेकिन आज उनका नाम सामाजवाद विचारक के रूप में नहीं मिलता है सांविधानिक धर्मनिरपेक्षता के बावजूद आज भी भारत में साम्प्रदायिक दंगों का अखाडा देखने को मिलता है कभी मंदिर तो कभी मस्जिद के नाम पर | परन्तु अछूतो और सवर्णों के साथ मिलकर भाईचारा कैसे बनाये रखना है ये भगत सिंह सीखा गए फिर भी दंगे होते हैं | उनका सपना था की किसानों के लिए केंद्र में बहस हो , उनके उत्पादन का सही दाम मिले | परन्तु आज तक उनका सपना सच नहीं हुआ किसान जैसे थोक में आत्महत्या कर रहे हैं, वे कर्ज के बोझ तले इतना दब जाते हैं की आत्महत्या करने अलावे उनके पास कोई और उपाय ही जैसे नहीं रह जाता है , सरकार उनकी कर्ज को माफ़ करके जैसे उन पर एहसान कर रहे हैं |कोई व्यक्ति अच्छा काम कर लेता है तो उसे आवार्ड मिला जाता है लेकिन भारत में पैदावर अच्छी हो जाती है तो यहां फसलों का दाम ही कम हो जाता है और किसानो को घाटा सहना पड़ता है, भगत सिंह चाहते थे कि किसान अपने हक के लिए लड़े लेकिन लगातार उनकी हक में कटौती होती आई है | उन्होंने उद्योगपतियों की एकता का नारा नहीं दिया। नहीं कहा कि वकील या डॉक्टर एक हों। दुनिया के मजदूरों, किसानों और नौजवानों की एकता की ही उनकी कोशिश थी। उन पर समाजवादी देशजता का नशा छाया था। वह रास्ता हालांकि मार्क्स के विचारों से निकल कर आता था। शहीद भगत सिंह का कहना था कि ‘ज़िन्दगी तो अपने दम पर ही जी जाती है दूसरों के कन्धों पर तो सिर्फ जनाजे उठाये जाते हैं।’
भगत सिंह का गाँधी जी के साथ सम्बन्ध:
भगत सिंह और गाँधी जी दोनों सामान रूप से गरीबी को समूल नाश करना चाहते थे दोनों में बहुत कुछ सामान था तो कुछ आसमान भी था — गाँधी जी परम आस्तिक थे और भगत सिंह नास्तिक थे | दोनों ही चाहते थे की जनता गरीबी और गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हो , एवं धर्म के नाम पर देश में फैलाई जा रही बुराई को ख़त्म किया जाए | साल 1928 में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठियों ने घायल कर दिया. इसके कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया | लाला जी की हालत देखकर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया | भगत सिंह ने इसका बदला लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर पुलिस सुपिरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई| लेकिन एक साथी की ग़लती की वजह से स्कॉट की जगह 21 साल के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गई. इस मामले में वे गिरफ्तार नहीं हुए बल्कि जब वे अंग्रेजो के कानो तक अपने आवाज को पहुंचाने के लिए सेंट्रल असेंब्ली सभा में बम फेंके तभी उन्होंने जानबूझकर अपनी गिरफ्तारी दे दी | और इसी हत्या को अभियुक्त बनाकर उन्हें फाँसी की सजा दी गयी | गाँधी जी का कहना था कि “भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को भी धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था. उनकी वीरता को नमन है. लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए. उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता. खून करके शोहरत हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे.” गाँधी जी अहिंसा आदोंलन चलाकर अंग्रेजो से आजाद होना चाहते थे उनकी नजर में भगत सिंह ने हिंसक प्रवृत्ति अपनाये जो गलत था गांघी जी ने गोलमेज सम्मेलन के समझौते में हस्ताक्षर किये अहिंसा रूप से लाडे सभी कैदियों को रिहा कर दिया जाए और भगत सिंह एवं उनके साथियों का कोई जिक्र नहीं था |
भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी :–
अपनी फांसी से एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को भगत सिंह ने अपने साथियों को एक आखिरी खत भी लिखा था कि ‘मुझे फांसी होने के बाद देश की खातिर कुर्बानी देने वालों की तादाद बढ़ जाएगी’। भगत सिंह लेनिन से काफी प्रभावित थे वे आखिरी समय में भी उन्ही की किताबें पढ़ रहे थे जब अधिकारी उन्हें जेल में लेने आये तो उन्होंने कहा ‘ठहरिये, पहले एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले’. अगले एक मिनट तक किताब पढ़ी. फिर किताब बंद कर उसे छत की और उछाल दिया और बोले, ‘ठीक है, अब चलो| 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरू को फांसी पर लटका दिया था। देश में तीनों की फांसी को लेकर जिस तरह से लोग विरोध और प्रदर्शन कर रहे थे, उससे अंग्रेज सरकार डर गई थी। तीनों सपूतों को फांसी 24 मार्च 1931 की सुबह दी जानी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार को माहौल बिगड़ने का डर था, इसलिए नियमों को दरकिनार कर एक रात पहले ही तीनों क्रांतिकारियों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। फांसी पर जाते समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू तीनों मस्ती से गा रहे थे –
मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे;
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।
निष्कर्ष :—- भगत सिंह किसी भी पार्टी के पक्षधर नहीं थे बल्कि वे एक राष्ट्रवादी एवं क्रांतिकारी थे जिन्होंने देश की सेवा में अपने जान तक न्योछावर कर दिए| फांसी के समय में भी उन्होंने अपनी ख़ुशी ही व्यक्त किये की वे देश के लिए बलिदान हुए| यदि भगत सिंह को फांसी नहीं होती तो देश की दशा और दिशा कुछ और ही होती| हमें अपने देश को आजाद कराने के लिए गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता बल्कि डटकर अंग्रेजो का सामना करते और सन 1947 से पहले ही आजादी मिल जाती|
Apki soch sach mein brave mind hai yeh ismein koi sak nhi hai humein. But humko bhi bahut Gyan tha history mein aur humein interested bhi lagta tha
Agar bhagat singh ko fansi nhi hota toh desh mein dange nhi hote Jo ki unke death k baad turant hua tha jisme bahut se sangathan shamil huye the, agar unhe fansi nhi hoti toh ajj hum ap inko yaad nhi kar rahe hote inke Saha’s k aage angrez bhi dar gaye the. Inki fansi se hum sab ko ek prerna sroth aur freedom fighter Milla.