क्या है जीवन ?? क्या आपने कभी अंतरावलोकन किया कि जीवन क्या है!

मुझे लगता है आपने कभी चिंतन और अंतरावलोकन की जहमत नहीं ली होगी कि जीवन क्या है? और हममे कुछ लोगों ने जहमत ली भी होगी तो आपकी चिंतन एक बिंदु पर आकर संभवतः रूक सी गयी होगी और फिर दुबारा आपने कोई कोशिश ही नहीं की। आइए एक चिन्तक की दृष्टि से एक बार अपनी चिंतन श्रृंखला को एक खास दिशा में लेकर चलते हैं।

भाग- एक: क्या है जीवन ?

हम में से बहुत लोग सारा दिन घर पर ही रहते हैं!
स्त्रियां सुबह उठकर घर के काम करती हैं, दोपहर कुछ देर सो जाती हैं, शाम को टीवी देखती हैं और फिर रात का काम करके पुनः सो जाती हैं!
गृहणियाँ तो ऐसा ही जीवन जीती हैं! रिटायरमेंट के बाद, ज़्यादातर पुरुष भी ऐसा ही जीवन जीते हैं!
वे अनेक वर्ष इस तरह से जीते हैं.. और फिर एक दिन उनके अवसान की बेला आ जाती है!
और हमारे पास उनके जिए जीवन की सिर्फ यादें ही शेष रहती हैं!
मां की याद, कि वह कैसे भांति भांति के व्यंजन बनाती थीं.. और किस तरह हर वक्त, हमारे भोजन और अनिष्ट को लेकर सतर्क रहती थी!
किचन में उनका रहना और, घर के हर कोने में उनकी क्षीण काया की मौजूदगी दिखती है!
उन सभी भगवानों की मूर्तियां, चित्र, चिन्ह, फूल उनकी याद दिलाते हैं, जिन्हें पूजकर, व्रत उपवास रखकर वह हमारे सुख की कामना करती थी !
कभी-कभी लगता है कितना छोटा सा जीवन था उनका.. और कितनी छोटी इच्छाएं थीं!

इसी तरह पिता का जीवन वृत्त भी आंखों के सामने से गुजर जाता है… सुबह उठना, दफ्तर या दुकान जाना, दिनभर खपना और शाम को घर लौट आना !
हजार जुगत से धनोपार्जन करना ताकि बच्चों की जरूरतें पूरी हो सकें..
स्कूल की फीस, मकान का किराया, बीमा की किश्त, बच्चों के लिए साइकिल, स्कूटी या बाइक खरीदना आदि !!
सामाजिक तौर पर, मां से कुछ अधिक बड़ा होता है पिता का जीवन क्योंकि उन्हें परिवार की आवश्यकताओं हेतु संसार से जूझना पड़ता है!
हालांकि, अब तो स्त्रियां भी यह दायित्व उठाने लगी हैं!
.. फिर देखते ही देखते बच्चे बड़े हो जाते हैं, उनका विवाह हो जाता है.. और फिर उनका भी वही जीवन हो जाता है जो उनके माता-पिता का था!!
इधर बच्चे बड़े हो जाते हैं और उधर माता-पिता बूढ़े होते जाते हैं!
अब माता-पिता का जीवन और भी सिमट जाता है! एक कमरे या गार्डन में सीमित हो जाता है!
फिर एक दिन उनके अवसान की बेला आ जाती है और हमारे पास उनके जिए की यादें ही शेष रह जाती हैं!
हम सभी का जीवन वृत्त लगभग ऐसा ही होता है!

क्या इतना ही है जीवन ??

फिर इधर कुछ ऎसे लोग हैं, जो बड़े सामाजिक दायरों में जीते हैं, ज्यादा लोगों से मिलते हैं! वे ज्यादा देश घूमते हैं, ज्यादा काम करते हैं, ज्यादा वस्तुएं जुटा लेते हैं.. क्योंकि वे ज्यादा महत्वाकांक्षी होते हैं !!
प्रत्यक्षतः तो ऐसा लगता है कि वे ज्यादा बड़ा जीवन जीते हैं..इसीलिए उन्हें देखकर हम भी उनकी तरह जीने को अपना लक्ष्य बना लेते हैं !
किंतु फिर हम देखते हैं कि वे भी, उन्हीं दुख, अवसाद, तनावों से घिरे हैं, जिनसे छोटा जीवन जीने वाले घिरे हैं..तो फिर लगता है कि ऐसे बड़े जीवन का भी क्या फायदा ??
अगर अधिक धन, अधिक भ्रमण, अधिक सामाजिक संपर्क भी, दुख को खत्म न कर सकें.. तो फिर उनकी प्राप्ति में जीवन ऊर्जा फूँकने का क्या अर्थ??
यह तो सिर्फ सापेक्षताओं का बदलना ही हुआ! जबकि दुख दर्द तो वहीं के वहीं खड़े हैं !
मात्र सापेक्षताओं का बदल जाना, जीवन का बदल जाना तो नहीं !!!!

तो फिर जीवन में बदलाव किस चीज से आता है ??

क्योंकि यह बात तो तय है कि अगर अनुभवकर्ता में बदलाव नहीं हो, तो अनुभव की विविधता का कुछ अर्थ नहीं है !!
….एक बोर व्यक्ति, हजार जगह घूम कर भी बोर ही रहा आता है!
एक यंत्रवत संभोग करने वाला व्यक्ति, हजार स्त्री-पुरुषों से गुजर कर भी, वही का वही रहा आता है!
अमीरों का तो सूटकेस भी सौ देशों की यात्रा कर आता है.. तो क्या सूटकेस का जीवन हमसे बड़ा है ??
क्या इस घूमने से, सूटकेस की गुणवत्ता में कोई परिवर्तन आता है ??
नहीं, क्योंकि सूटकेस की कोई चेतना ही नहीं है !
तो क्या चेतना की स्थिति हमारे बड़े या छोटे जीवन की निर्धारक है??
क्योंकि अगर अनुभव की क्षमता सीमित है, तो तथाकथित बड़ा जीवन भी छोटा जीवन ही है!
फिर एक जीवन को आख़िर कितना जी लीजिएगा ??
कितना पैसा कमाईएगा?
कितनी किताबें छपवाइएगा?
कितना साम्राज्य जुटाइएगा ?
कितने स्त्री पुरुषों से प्रेम कीजिएगा ??

हमारी आवश्यकता कितनी है?
हमारे भोगने की क्षमता कितनी है ??
एक पेट है, कितना खाइएगा?
एक दिल है, कितनों से लगाइएगा?
एक दिमाग है, कितना चलाईएगा?
एक अंग है, कितना सेक्स कीजिएगा ??
सीमित इंद्रियां है, सीमित उनकी क्षमताएं हैं, सीमित उनकी आयु भी है…इन सीमित इंद्रियों से कितना जी लीजिएगा ??
तब, जबकि इंद्रियों में स्वयं तो कोई रस ही नहीं है, वे तो मात्र माध्यम हैं, रस लेने वाला तो कोई और ही है!
ये प्रश्न बार-बार मेरे मस्तिष्क पटल पर दस्तक देते हैं ??
शायद प्रत्येक विवेकशील मनुष्य के भीतर यह प्रश्न उठते ही हैं!

फिर जब भी मुझे फल, सब्जी या किराने का सामान लेने बाजार जाना पड़ता है.. या किसी वाहन, उपकरण की रिपेयरिंग में जुटना पड़ता है..तब अक्सर मैं सोचता हूं कि क्या…. इन अनुत्पादक बातों में मैं जीवन का कीमती समय तो खत्म नहीं कर रहा हूं??
कौन सा काम बड़ा है, किस काम में ज्यादा समय लगाया जाए, यह जीवन का बड़े से बड़ा प्रश्न है!
क्या पैसा कमाने में?
क्या मस्ती मजे करने में?? क्या राजनीति में, लिखने पढ़ने में.. कि कर्तव्य निर्वहन में??
क्या किया जाए, कैसे जिया जाए, क्या है जीवन का उद्देश्य??

तब जबकि, आधा जीवन तो खाने-पीने, सोने और नित्य कर्मादि में ही निकल जाता है !
क्या कोई कार्य छोटा बड़ा होता है ??
ज़ेन साधु तो कहते हैं कि.. कोई कार्य बड़ा छोटा नहीं है, जो भी करो उसे वर्तमान में रहकर पूरी सजगता से करो, फिर चाहे आप चाय पी रहे हों या ब्रश ही क्यों न कर रहे हो ??
किंतु यहाँ भी प्रश्न खड़ा हो जाता है.. कि इस सजगता से क्या प्राप्त होगा??
क्या इससे स्वास्थ्य प्राप्त होगा, क्या इससे आयु बढ़ जाएगी ??
प्रत्यक्षतः तो ऐसा कुछ दिखता नहीं, वर्ना हमारे तथाकथित सजग लोग, देह से रोगी और अल्पायु के न होते !!

एक दिन हमारी भी मृत्यु हो जाएगी और उस सभ्यता की भी, जिसमें हम अभी मौजूद हैं!
अतीत की सभी सभ्यताओं की तरह एक दिन पृथ्वी से यह सभ्यता भी नष्ट हो जाएगी, चाहे वह कितनी ही भव्य और उन्नत क्यों न रही हो!
स्टीफन हॉकिंस कहते हैं, कि पृथ्वी पर.. मनुष्य का भविष्य कोई हजार वर्ष से अधिक का नहीं है!
वह चाहे पृथ्वी के अत्यधिक गर्म हो जाने से हो, या ठंडा जाने से, अथवा किसी एस्टेरॉयड के टकराने से.. अंततः तो सब नष्ट ही हो जाना है !
इसके साथ ही, हमारी वह सब मान्यताएं, परंपराएं, पंथ, वाद, धर्म भी धूल धुसरित जाना हैं.. जिनके साथ हम इतने आग्रह-दुराग्रह से जुड़े हैं.. और जिनकी खातिर मरने-मारने पर आमादा हैं!!
अंततः तो अनंत ब्रह्मांड में इस पिंड का विलुप्त हो जाना भी तय है!
तो फिर प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर जीवन क्या है ?
जीवन का उद्देश्य क्या है??
क्या शरीर का अंत, जीवन का अंत है??
क्या ब्रह्मांड का अंत, सृष्टि का अंत है ??
यदि नहीं, तो वह क्या है.. जो अनश्वर है?
तो क्या उसे जानना जीवन का परम लक्ष्य नहीं होना चाहिए?
और यदि मृत्यु जीवन का अंत है, तो जीवन क्या है ???
( Continue…..

(यह लेख अभी ज़ारी है, क्षमा करें.. यह कुछ लम्बा हो जाएगा.. किंतु इसे एक ही जगह लिखना ज़रूरी है! )

भाग- दो: क्या है जीवन ?

क्या जगत किसी प्रयोजन से है या यह निष्प्रयोजन है? जगत की उत्पत्ति और उद्विकास को लेकर अनेक विचार मौजूद है! बिग बैंग थ्योरी के अनुसार जगत, चार डायमेंशन में, सापेक्षता के साथ, टाइम और स्पेस को निर्मित करते हुए निरंतर विस्तारित है! अंततः यह, अपने ही गुरुत्व में समाकर, सघन बिंदु स्वरूप हो जाएगा तथा पुनः बिग बैंग की तरह विस्तारित हो जाएगा ! साथ ही उसके कांस्टीट्यूएंट्स, चाहे उन्हें कण कहें कि तरंग, कि क्वाँटा.., वे सघन या विरल होकर ग्रह, नक्षत्र, पिंड,उल्का, ब्रह्मांड गैलेक्सी के रूप में अस्तित्व में आ जाएंगे !

संभव है कि ‘कण-तरंग’ (Wave-particle) परस्पर क्रिया द्वारा पुनः किसी एककोशीय संरचना को जन्म दें, जो अपने न्यूक्लियस की रक्षार्थ, वसा का कवच बनाए, उसमें विभाजन से बहुकोशिय संरचनाएं निर्मित हों, और इस तरह करोड़ों वर्षों से गुजरकर किसी ग्रह पर जीवन की उत्पत्ति हो! यह जीवन, एक पिंड पर भी संभव है और ब्रह्मांड के अन्य पिंडों पर भी ! इस तरह देखें तो सिर्फ हमारा ही लोक नहीं है, बल्कि इस ब्रह्मांड में अनेकों लोक संभव हैं! किंतु बड़े से बड़ा प्रश्न यही है कि क्या यह शाश्वत महालीला स्वत: स्फूर्त है, या इसके पीछे कोई कर्ता मौजूद है ???

आद्यतन काल से मनुष्य ने, ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव दोनों तरह से, इस प्रश्न के उत्तर की खोज की है !
ऑब्जेक्टिव एप्रोच विज्ञान है!
सब्जेक्टिव एप्रोच अध्यात्म है!

आधुनिक विज्ञान अपने शिखर पर खड़ा है! वह कण को तोड़कर क्वाँटा पर आया, फिर जगत की सापेक्ष स्थिति पर.. और अंततः दृष्टा पर आकर ठहर गया है !! जिसे ऑब्जर्वर इफेक्ट कहते हैं !यानी दृष्टा न हो,तो दृश्य भी नहीं है! किंतु चूंकि हम सभी के प्रत्यक्ष अनुभव में दृश्य तो मौजूद है.. लिहाजा दृष्टा का होना भी लाजमी है !! तो क्या दृष्टा की उपलब्धि जीवन की उपलब्धि है ?? और तब क्या,अगर दृष्टा उपलब्ध न हो ?? तो क्या हम अनंत काल तक सापेक्ष जगत में पेंडुलम की तरह डोलते रहेंगे ??

अगर दृष्टा ही चेतना है, तो दृष्टा की उपलब्धि ही, जीवन का उद्देश्य भी होना चाहिए.. क्योंकि आख़िरकार चेतना ही तो जीवन है !!
तो क्या चेतना की भी अवस्थाएं होती हैं ??
यदि हां, तो हम किस अवस्था में हैं ??
पदार्थ, वृक्ष, वनस्पति, कीट, पक्षी, जंतु आदि किस अवस्था में है ??
क्या मनुष्यों में भी चेतना का परिमाण कम या अधिक होता है ??
जगत का उद्विकास किस विधि से हुआ है ??
क्या विकास क्रम में हम सभी अलग-अलग पायदान पर खड़े हैं ??

चलिए कुछ देर के लिए विज्ञान से बाहर निकलें तथा धर्म और दर्शन की ओर दृष्टिपात करें ??
जहाँ बाइबल और कुरान,जैसे प्रिमिटिव समझ वाले ग्रंथ, छः दिन में सृष्टि का निर्माण हुआ बताते हैं वहीं भारतीय दर्शन में सृष्टि के निर्माण को लेकर, ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव दोनों तरह के विचार मौजूद हैं!
सांख्य दर्शन ने सबसे पहले, पदार्थ और चेतना इन दो तत्वों से सृष्टि की रचना बताई थी !
कालांतर में, जैन और बौद्ध साहित्य में भी, पदार्थ और चेतना इन दो बिंदुओं पर निहायत ही तफ्सील और बारीकी से विचार किया गया!!
बाद में प्रकारान्तर से, जो भी निष्पत्तियां सामने आई हैं, उनकी उद्घोषणा तो..,
इन समस्त दर्शनों के उदय से बहुत पहले ही, वेदों में सन्निहित पाई गयीं!!

तो क्या वेद प्रमाण हैं ??
आर्ष साहित्य में वेदों को अपौरुषेय कहा गया है ! यानी मनुष्य द्वारा नहीं किंतु, किसी परम चेतना द्वारा कथित!!
बरहाल, हमारा उद्देश्य , वेदों की श्रेष्ठता स्थापित करना नहीं है बल्कि इस प्रश्न की पड़ताल करना है कि जीवन क्या है और जीवन का उद्देश्य क्या है ??

वेदों का निचोड़ वेदांत कहा जाता है !
जिसमें सर्वाधिक मान्य विचार तो यही है कि, जगत की उत्पत्ति एक तत्व से हुई है और वह तत्व चैतन्य है!
इस चेतन से ही पदार्थ की उत्पत्ति हुई है, और पदार्थ की अंतिम परिणिती चेतना की उपलब्धि ही है!

यद्यपि चेतना और पदार्थ, पृथक-पृथक नहीं हैं,
किंतु पदार्थ, सापेक्ष जगत में कण की तरह, प्रतीत होता है, जबकि चेतना सदा दृष्टा ही है!!
यह जिक्र इसलिए किया गया क्योंकि आधुनिक भौतिकी के लगभग सारे ही सिद्धांत, अब इस “दृष्टा” के गिर्द आकर ठहर गए हैं!
इस दृष्टा को जान लेने में ही, जीवन को जान लेने का रहस्य छुपा हुआ है!
क्योंकि यही वास्तविक चेतना है!
और इस चेतना का अनुभव ही जीवन का उद्देश्य है !!
चेतना से पदार्थ और पदार्थ से चेतना, यह प्रक्रिया सनातन जारी है !
चेतना, non local है, कालातीत है.. अतः इसे किसी से समय से नहीं बांधा जा सकता !
पदार्थ से चेतना का यह विकास,…उद्विकास की अनेक श्रृंखलाओं से गुजर कर भी हो सकता है, अकस्मात भी !
फिर चाहे डार्विन की उद्विकास थ्येरी से देखें.. अथवा हिंदू मायथॉलजी की दशावतार कहानी से,…यह तो तय है कि जल,पादप, जीव आदि श्रंखलाओं से गुजरकर ही मानवीय चेतना का विकास हुआ है ! और प्रत्येक कोशिका, पुराने सारे डेटा की जानकारी और स्टोरेज सहित, निरंतर विकसित होते हुए मनुष्य रूप में आई है !!

तो क्या मनुष्य, विकास श्रंखला की अंतिम परिणति है ??
कतई नहीं, क्योंकि अगर यह विकास प्रक्रिया इसी तरह जारी रहती है..तो मानवीय चेतना, विकास क्रम की अंतिम परिणीति नहीं हो सकती है!

मनुष्य की यह यात्रा विश्व चेतना होने तक जारी रहने वाली है!

भाग- तीन: क्या है जीवन ?

जो सार है, वह यह है कि अस्तित्व हमारे करने से नहीं बना है, वह स्वतः स्पन्दित है!
-सांस हम अपनी मर्जी से नहीं लेते हैं, वह स्वतः आती जाती है,
-रक्त हम नहीं बनाते, वह स्वयं बनता है!
-हृदय हमारे इशारे पर नहीं धड़कता,
-ग्रह नक्षत्र हमारी मर्जी से नहीं चलते!
विश्व एक महान बुद्धिमत्ता (cosmic wisdom)से संचालित है!
इस विश्व प्रवाह में तब्दीली हमारे बस की बात नहीं!
किंतु अपनी जिंदगी को किस तरह जिया जाए इस पर हमारा काफी कुछ अख्तियार हो सकता है!
हमारे पास अपने जीवन को रूपांतरित करने के लिए, निर्णय लेने की free will मौजूद है.. और वह पग-पग, प्रतिपल मौजूद है !
हम जिस विचार को अहमियत देते हैं, उसी के अनुरूप हमारा निर्माण हो जाता है!
बाहरी दुनिया में हमने बहुत प्रगति जरूर कर ली है, किंतु मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुसंख्यक लोग अभी भी आदिम संवेगों से संचालित हैं!
दंगे, रेप, जघन्य हत्या, हिंसा करते वक्त आदमी के भीतर छिपा पशु प्रकट होता है!
जब तक मनुष्य के भीतर से यह आदिम संवेग नहीं मिटेंगे, तब तक वह वहीं का वहीं रहेगा, चाहे वह कितनी ही वैज्ञानिक,आर्थिक या सामाजिक उन्नति क्यों न कर ले!
आज भी जो विश्व हमारे सम्मुख है वह उन मुट्ठी भर लोगों से बना है जिन्होंने.. अलग-अलग आयामों में चेतना के उत्कर्ष को छुआ है !
…. बहुसंख्यक वर्ग इन्हीं के श्रम और विवेक का लाभार्थी मात्र है और कुछ नहीं !
वस्तुतः तो वह चेतनागत विकास की यात्रा में अभी भी बहुत पीछे खड़ा है !

Choice हमारे हाथ में है!
छोटी चेतना से छोटा जीवन जिया जाए कि बड़ी चेतना से !!!!

क्योंकि चेतना ही जीवन है!!

जगत, पदार्थ से चेतना की यात्रा है, अचेतन से चेतन की यात्रा है!
पदार्थ में कम चेतना है, इसीलिए उसमें कम जीवन है!
वृक्ष में उससे अधिक चेतना है इसलिए अधिक जीवन है ,
जीव-जंतुओं में और अधिक चेतना है इसलिए वह वनस्पति जगत से अधिक जीवंत हैं!
फिर जंतु से अधिक चेतना मनुष्य में है इसीलिए उसमें अधिक जीवन भी है !
किंतु सभी मनुष्य विकास क्रम में एक ही पायदान पर नहीं खड़े हैं !
जो मनुष्य जितना चैतन्य है, उसमें उतना अधिक जीवन है ..क्योंकि चेतना ही जीवन है, और चेतना का पूर्ण विस्तार ही जीवन का उद्देश्य है !!!

अगर चेतना बड़ी है, तो कमरे का जीवन भी महाजीवन है!
अगर चेतना छोटी है, तो ग्लोबल जीवन भी छोटा जीवन है !

आप जो भी काम करते हैं अगर उससे चेतना को विस्तार नहीं मिलता है..तो वह काम छोड़ दीजिए !
आप जैसा जीते हैं, अगर उससे चेतना को फैलाव नहीं मिलता.. तो उस जीने के तरीके को बदल दीजिए !
क्योंकि चेतना ही जीवन है!
चेतना से चूक जाना जीवन से चूक जाना है !
जितनी बड़ी चेतना की लौ है, उतना बड़ा जीवन है!
चेतना की उपलब्धि, जीवन की उपलब्धि है!
जीवन को जी लेना ही जीवन का उद्देश्य है!
जीवन प्रतिपल सृजन है, जीवन प्रतिपल विस्तारित है, जीवन प्रतिपल नवीन है!
जीवन कभी मरता नहीं, जीवन अमर है!

देह, पदार्थ है!
पदार्थ की मृत्यु, जीवन की मृत्यु नहीं है !
मृत्यु से बचाव, जीवन जी लेने में ही है!
अनजिया ही, दोबारा जन्म लेता है !
किंतु जी लेने का अर्थ दोहराव नहीं बल्कि फैलाव है!
फैलाव की अंतिम परिणति अखंडता है!
अखंडता की अनुभूति मृत्यु को ट्रांसेंड कर जाती है!
यह अमृत्व का, एकत्व का बोध है !

इसी तरह विभाजित जीवन, कम चेतना का जीवन है !
जिस प्रकार एक बंद कमरे में हवा नहीं
आ-जा पाती.. उसी तरह अहं के कमरे में पूरा अस्तित्व प्रवाहमान नहीं हो पाता!

क्या हैं बढ़ी हुई चेतना के लक्षण??

जैसे-जैसे चेतना बढ़ती है, वैसे वैसे विश्व अखंड दिखाई देने लगता है !
-अकारण खुश रहना, विचारवान रहना, सजग रहना, जगत को अविभाजित देखना बढ़ी हुई चेतना के लक्षण है !
– प्रेम पूर्ण रहना, सृजनशील रहना, निरंतर सीखना चेतना का गुण है!

क्या हैं कम चेतना के लक्षण?

– विभाजित करके देखना, कम चेतना का प्रधान लक्षण है !
– अपने परिवार और अन्यों के परिवार में भेद देखना,
अमीरी गरीबी, उच्चता निम्नता के भाव से भरे होना !
– मनुष्य, पशु, वनस्पति, ग्रह ब्रह्मांड सभी को अलग-अलग देखना !
– पेड़ पौधों में सन्निहित जीवन और संवेदना को न देख पाना
– पशुओं से प्रेम और जुड़ाव और न बन पाना !
यह सब कम चेतना के लक्षण हैं!
हमारे भीतर जितना अधिक विभाजन/भेदभाव होगा, उतनी ही कम हमारी चेतना होगी !

बड़ी चेतना की उपलब्धि कैसे हो?

विचार, विभाजन पैदा करते हैं, इसीलिए विचार से पार निकल आना ही अविभाजित चेतना को प्राप्त करने का सबसे बड़ा उपाय है !
इसका मार्ग बहुत सीधा है !

सहज रूप से हमें जो बुद्धि-विवेक मिला है उसी का प्रयोग किया जाए !
प्रत्येक मनोभाव और क्रिया विधि का सजग निरीक्षण किया जाए !
सोचते वक्त.. पुराने पढ़े, लिखे, सुने को हटाकर सोचा जाए!
फिर जो निष्पत्ति निकले उसे अनुभव की कसौटी पर कसा जाए !
इस प्रक्रिया को निरंतर जारी रखा जाए, यही अवलोकन है यही सजगता है !
इसे ही उपनिषदों में श्रवण मनन और निदिद्यासन कहा गया है
किंतु इसका अर्थ मात्र, वेद अथवा मनुष्य कृत किताबों या बातों को पढ़ना, सुनना नहीं है बल्कि… पौधे, झरने, प्रकृति,अस्तित्व की हर शै से आती आवाज और संदेश, और रहस्य को सुनना है!
उसके पश्चात उसे गुनना है, यही मनन है!
यही सीखने की प्रक्रिया है!

चेतना, सीखने से एक्सपेंड होती है!
किंतु सीखना भी दो तरह का होता है.. एक तो ऑब्जेक्टिव वर्ल्ड का सीखना है..मसलन.. भाषा, गणित, टेक्नोलॉजी, काम काज,पैसा कमाना, लोकाचार आदि !!
किंतु, इस सीखने से चेतना के एक्सपेंशन का कुछ लेना देना नहीं है !
यह सीखना तो मात्र, कार्मिक देह को जिंदा रखने और संतति के यत्न से संबंधित है !
चेतना का विस्तार , मन की क्रिया-विधि को समझने और पूर्वाग्रह रहित, निष्पक्ष निरीक्षण से होता है !
सब्जेक्टिव स्तर पर सीखने की प्रक्रिया से ही चेतना विस्तारित होती है!
ध्यान की कोई भी विधि, चेतना की उपलब्धि तक नहीं ले जाती!
वह मात्र हमारे ऑब्जरवेशन और मनन की योग्यता को बढ़ाने में ही सहयोगी है !
इससे आगे उसका कोई मूल्य नहीं है!

बल्कि तो ज्यादा ध्यान करने वाले साधक अक़्सर..अनुपजाऊ, जड़ और गोबरगणेश ही होते हैं!
क्योंकि वे किसी सत्य की खोज से नहीं, बल्कि मृत्यु, रोग, भय,
शोक, बिछोह, प्रतिस्पर्धी दुनिया से घबराकर, ध्यान को अपनी शरणस्थली बना लेते हैं !
उनमें सत्यान्वेषियों का कम और पलायन वादियों का अधिक प्रतिशत होता है !
यही कारण है कि सालों-साल ध्यान करने के बाद भी, उनकी चेतना में कोई परिवर्तन नहीं होता!
न ही उनसे विवेक और बुद्धिमत्ता की कोई आभा उठती है ,
न ही प्रेम या सृजन का प्राकट्य ही होता है! उल्टे वे तो अधिक आलसी, अनुत्पादक और जड़ हो जाते हैं!
चेतना गत विकास के लिए हमें किसी ध्यान पद्धति की अधिक आवश्यकता नहीं है बल्कि,
जिस बुद्धिमत्ता से निरंतर सीखते हुए हम, एककोशीय संरचना से बहुकोशीय हुए हैं….उसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है ! क्योंकि वह वैश्विक बुद्धिमत्ता है !
उसमें हमें सापेक्ष जगत को दिखाकर, निरपेक्ष दृष्टा तक पहुंचाने की प्रज्ञा अंतर्निहित है !!!
पदार्थ से मनुष्य होने तक का विकास, इसी सीखने की प्रक्रिया से हुआ है न कि
किसी ध्यान या मैडिटेशन की पद्धति से!
और आगे भी, इसी विवेक के प्रयोग से ही मनुष्य , उच्चतम चेतना को उपलब्ध हो सकेगा !
इस यात्रा में किसी लौकिक गुरु की अनिवार्यता भी नहीं है!
सारी सृष्टि ही गुरु है !
वृक्ष, वनस्पति गुरु हैं , चांद तारे गुरु हैं , भोर का फटना, रात का गहराना गुरु है !!
अब तो विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि,
कोई गुरु, सौ साल में भी जितना नहीं सिखा सकता है, उससे हजार गुना ज्ञान गूगल पर उपलब्ध है !
दरअस्ल तो, गुरु का उतना ही महत्व है कि वह आपको उस ओर उनमुख कर दे, जिस ओर सत्य है!
हम धन्य भागी है कि, पूर्ववर्ती अनेक मनुष्यों के श्रम से, हमारे पास दृश्य,श्रव्य और लेखन के रूप में अथाह ज्ञान मौजूद है!
मानवता अब चेतना की बड़ी छलांग लगाने के लिए तैयार है!

जिस तरह, जड़ों पर पानी डालने से, पूरा वृक्ष खिल जाता है!
उसी तरह,
चित्त वृत्ति पर दृष्टि डालने से चेतना का कमल खिल जाता है!
उपाय एक ही है…. देखना !
सजग, संपूर्ण, अन-कंडीशन्ड, अविभाजित, अतीत रहित देखना !
हर कृत्य, हर विचार, हर मनोभाव को .. मात्र देखना!
शरीर को भी, प्राण को भी… मात्र देखना!
.. देखने की प्रचंड ऊर्जा से, सभी पत्र एकसाथ खिल उठते हैं!
और जब,
द्रष्टा, दृश्य और देखने की प्रक्रिया एक हो जाती है… तब चेतना का सहस्त्रदल कमल भी खिल उठता है!

साभार- व्हाट्स एप्प मेसेज

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