स्वतंत्रता संग्राम का उदय – प्राचीन काल से ही भारत के लोगों में एक धारणा बनी हुई है – “वसुधैव कुटुम्कम्ब “और “अतिथि देवो भवा ” वैदिक काल में प्रत्येक कार्य को धर्म से जोड़कर किया जाता था यही वजह था जब अंग्रेज व्यापार करने के लिए भारत आये तो उसे यहाँ रुकने से मना नहीं कर पाए क्योंकि यहां के जनता के लिए अतिथि भगवान के सामान होता है और इसी पनाह को वे अपना हथियार बना कर लोगों को गुलाम बना लिया। आजादी से पहले भारत में राजाओं का शासन होता था। जिसके कारण तत्कालीन राजा अपने राज्य को ही देश समझता था। हर राज्य में अपना अलग -अलग संस्कृति ,धर्म एवं भाषा थी। सन 1498 ई में कालीकट बंदरगाह के समुद्री मार्ग से वास्को डी गामा भारत पंहुचा और भारत के लिए यूरोप और पूर्वी देशों के बीच समुद्री मार्ग खुल गए। धीरे -धीरे भारत यूरोप के लिए व्यापारिक केंद्र बन गया यहां से मिलने वाले मसालों के कारण एकाधिकार करने की उनकी चाह बढ़ गयी।
1600 ई में जॉन वाट्स और जॉर्ज व्हाइट ने दक्षिण -पूर्व एशियाई देशों के व्यापार करने के लिए ब्रिटिश जॉइन्ट स्टॉक कम्पनी की नींव राखी, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1608 ई को अंग्रेज सूरत के बंदरगाहसे प्रवेश किया और सात साल बाद यानी 1615 -1616 ई में थॉमस रो ने शाही फरमान प्राप्त करके सूरत में अपना पहला कारखाना खोला और दूसरा मद्रास के विजयनगर में अपने साम्रज्य का विस्तार किया। अपने कूटनीति से सारे यूरोपीय को भारत से खदेड़ दिया और रेशम, नील, कपास,चाय और अफीम का व्यापार करने लगे। इसी दौरान देखा गया की यहां की सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक , स्थिति अस्त -व्यस्त है और लोगों के बीच आपसी मतभेद है। तो उनके मन में शासन करने का विचार आया, इसी मौका का लाभ उठाते हुए उन्होंने दो राजा के मध्य युद्ध करवाया और फुट डालो राज करो की नीति अपनाया। क्योंकि यहाँ के लोगों के अंदर से भाईचारे को मिटाकर भाई -भाई को दुश्मन बनाना था। जिससे वह अधिक दिनों तक भारतीयों को गुलाम बना सके और यहां के धन सम्पदा को लूट सके।भारत में प्रचुर मात्रा में धन सम्पदा होने के कारण ही सोने की चिड़िया कही जाती थी। इसके साथ ही साथ भारत अपने संस्कृति तथा मसालों के कारण और भी ज्यादा प्रसिद्ध था।
1750 के दशक से ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारतीय राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया। साल 1757 में प्लासी की लड़ाई में रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्त्व में ईस्ट इण्डिया कंपनी ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दोला को पराजित कर दिया और इस लड़ाई के बाद ही ईस्ट इण्डिया कंपनी का शासन भारत में शुरू हो गया। इस देश को गुलाम बनाने से पहले यहाँ की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शिक्षा पर प्रहार किया। और अपने अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को भारतियों पर थोपना शुरू किया। उन सबका मानना था की अंग्रेजी शिक्षा आने से इस देश में शरीर से भारतीय पैदा होंगे परन्तु दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगें और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगें तो हमारे हित में काम करेंगे। वे सभी भारतियों को ऑफिसर नहीं बल्कि कर्मचारी बनाकर रखना चाहते थे। मैकाले एक मुहावरा था “जिस प्रकार किसी खेत में फसल लगाने के पहले खेत की जुताई की जाती है ठीक उसी प्रकार यहाँ अंग्रेजी व्यवस्था लाने के लिए यहाँ की आध्यात्मिक शिक्षा व्यवस्था को ग़ैरक़ानून साबित करना होगा। “मैकाले ने 1835 ई में अपने विवरण पत्र पार्लियामेंट में सौंपी जिसमे कहा गया था की एक लाख सालाना शिक्षा पर खर्च करेगा परन्तु ये व्याख्या नहीं किया गया था कि वह खर्च अँग्रेजी शिक्षा पर करेगा। कम साधन में अधिक लोगों को शिक्षित करना था इसलिए उन्होंने Filtretion theoryदिया जिसमे कहा गया था शिक्षा पहले उच्च वर्ग को दी जाए इस वर्ग के शिक्षित होने पर शिक्षा का प्रभाव छन छन कर जनसाधारण तक पहुँच जायेगी।
इस संग्राम को शुरू करने के पीछे उद्देश्य था अंग्रेंजो से मुकाबला करके उन्हें देश से बाहर खदेड़ना और अपने देश को गुलामी से मुक्त कराना। युद्ध के अनेक कारण था जिसमें -सामाजिक ,आर्थिक ,धार्मिक और राजनितिक कारण के अतिरिक्त अन्य मुख्य कारण था ब्रिटिश सरकार की “गोद निषेध प्रथा या हड़प निति “जो तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड डलहौजी की दिमाग की उपज थी। तथा प्रमुख कारण था एन्फील्डस रायफल के कारतूस में चर्बी का प्रयोग होना जो गाय व सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता था। गोली चलाने से पहले इसे मुंह से काटना पड़ता था जिसके कारण सभी सैनिकों (भारतीयों )का धर्म भ्रष्ट हो रहा था। इसका पता चलते ही सर्वप्रथम बैरकपुर छावनी से मंगल पांडेय ने इसका विरोध के लिए आवाज उठाया और फिर धीरे -धीरे पुरे देश में क्रांति का रूप ले लिया। सर्वप्रथम इस क्रांति की शुरुआत एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई थी लेकिन धीरे -धीरे इसका स्वरुप बदलता गया और ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह बन गया, जिसे बाद में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाने लगा।
इस क्रांति की शुरुआत 10 मई 1857 को मेरठ से हुआ था जो धीरे -धीरे कानपूर,बरेली, झाँसी, दिल्ली ,अवध आदि स्थानों पर फ़ैल गया।
स्वतंत्रता पूर्व भारत की सामाजिक, राजनितिक ,आर्थिक स्थिति कुछ इस प्रकार जिम्मेदार थीं
सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति :-– अंग्रेजों के कारन भारतीय सामाज में काफी असन्तुलन पैदा हो गया था क्योंकि 1850 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानून निकला जिसमें कहा गया था की जो ईसाई धर्म नहीं अपनाएगा उसे अपने पूर्वजों के सम्पति से बेदखल कर दिया जाएगा नौकरियों में पदोन्नति तथा शिक्षण सस्थाओं में प्रवेश मिलेगा। भारतियों के हौसला तोड़नेका सबसे बड़ा कारण नजर आ रहा था अध्यात्मिक भावना को चोट पहुंचाना। १८०६ से ही भोपाल के सैनिक अंग्रेजों से नाराज थे क्योंकि उन्हें तिलक लगाने, सर पर टोपी पहनने से मना किया कर दिया गया था।
राजनितिक स्थिति:– ब्रिटिश सरकार (तात्कालीन गवर्नर लॉर्ड डलहौजी ) ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए हड़प निति अथवा गोद प्रथा का निषेध जैसे नीति लाया जिसमे कोई राजा अपने दत्तक पुत्र को गद्दी पर नहीं बैठा सकता वह राजा का उत्तराधिकारी नहीं बन सकता। और इस प्रकार राज्य का विलय ब्रिटिश कंपनी में हो जाएगा। लॉर्ड डलहौजी ने उपाधियों तथा पेंशनों पर प्रहार करते हुए 1853 में कर्नाटक के नावाब की पेंशन बंद कराव दी। तंजौर की राजा की मृत्यु होने पर 1855 में उसकी उपाधि छीन ली गयी। डलहौजी मुग़ल सम्राट का भी उपाधि छीनना चाहता था तथा परन्तु सफल न हो सका। उसने बाजीराव पेशवा द्वितीय की 1853 में मृत्यु होने के बाद उनके दत्तक पुत्र नाना साहेब का पेंशन भी बंद कर दिया गया। उन सबका कहना था की पेंशन पेशवा को नहीं बल्कि बाजीराव को व्यक्तिगत रूप से दी जा रही थी। जिससे भारतीय नरेश अंग्रेज से और भी ज्यादा असंतोष था, यह असंतोष भी युद्ध के आग में घी डालने का काम किया। इस निति के तहत निम्न राज्यों को विलय कर लिया गया था :-
राज्य वर्ष
सातारा 1848
जैतपुर , सम्भलपुर 1849
बाघाट 1850
उदयपुर 1852
झाँसी 1853
नागपुर 1854
करौली 1855
अवध 1856
आर्थिक कारण :– भारतीयों द्वारा अपने ही जमीन पर फसल उगाकर जीवन यापन करने से वंचित किया जा रहा तथा क्योंकि किसानों से जबरदस्ती कर वसूली की जा रही थी। कर की भार इतना ज्यादा था कि जो लोग कर अदा नहीं कर पा रहे थे उन्हें अपनी भूमि से बेदखल कर दिया जा रहा था और वह जमीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों चला जा रहा था। किसानों से नीलऔर कपास की खेती करवा कर उनकी भूमि को बंजर बनाया जा रहा था, यहाँ से कर और राजस्व एकत्र कर इंग्लैंड भेजा जा रहा था और वहां के लोग ऐशोआराम की जिन्दगी जी रहा था। यहाँ के लोगों का जीवन बद से बदतर हो गया। जब उसे अपने ही देश में कैद कर लिया गया था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के खुलने से यहाँ के हस्तशिलप और घरेलू उद्योग धंधा को काफी ठेस पहुंचा। यहाँ के सारे कच्चे माल को एकत्र कर इंग्लैंड भेजा जाता था जिससे लोग एक तरह से बेरोजगार हो गए थे। जिन लोगों को शाही संरक्षण प्राप्त था उन्हें पहले ही बंद कर दिया गया था।
अन्य तत्कालीन कारण :– रायफल के कारतूस में भरा गया गाय और सुअर की चर्बी जो उस समाय लोगों के जहन में दहसत फैला हुआ था की उनकी धार्मिक भवनों को ठेस पहुँचाया जा रहा था। जिसका विद्रोह सर्वप्रथम विद्रोह मंगल पांडेय ने बैरक छावनी से की थी। इसके साथ ही भारतीय सिपाहियों को यूरोपीय सिपाहियों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता था। उनका भोजन की गुणवत्ता भी ख़राब रहती थी। इसके अतिरिक्त भारतीय सिपाहियों को सूबेदार से ऊपर कोई पद नहीं मिलता था।
युद्ध के केंद्र एवं सम्बंधित क्रन्तिकारी
केंद्र | क्रन्तिकारी | |
1. | कानपुर | नाना साहब, तात्या तोपे |
2. | दिल्ली | बहादुर शाह जफ़र, बख्त खां |
3. | लखनऊ | बेगम हजरत महल |
4. | झाँसी | रानी लक्ष्मीबाई |
5. | इलाहाबाद | लियाकत अली |
6. | जगदीशपुर (बिहार) | कुवँर सिंह |
7. | फतेहपुर | अजी मुल्ला |
विद्रोह की असफलता के कारण
# निश्चित तिथि के पूर्व क्रांति का भड़कना ,
# सीमित आंदोलन,
# प्रभावी नेतृत्त्व का आभाव,
# केंद्रीय संगठन का अभाव,
# लॉर्ड केनिंग की उदारता,
# सीमित संसाधन,
# मध्य वर्ग का युद्ध में हिस्सा न लेना,
# सिख एवं गोरखों की गद्दारी,
# दक्षिण भारत की उदासीनता,
# नरेशों का असहयोग आदि।
# निश्चित तिथि के पूर्व क्रांति का भड़कना ,
# सीमित आंदोलन,
# प्रभावी नेतृत्त्व का आभाव,
# केंद्रीय संगठन का अभाव,
# लॉर्ड केनिंग की उदारता,
# सीमित संसाधन,
# मध्य वर्ग का युद्ध में हिस्सा न लेना,
# सिख एवं गोरखों की गद्दारी,
# दक्षिण भारत की उदासीनता,
# नरेशों का असहयोग आदि।
1) निश्चित तिथि के पहले क्रांति का भड़कना :– क्रांति आरम्भ करने की तिथि 31 मई को निश्चित की गयी थी परन्तु सूचनाओं के प्रसार के अभाव में समय से पहले ही युद्ध आरम्भ हो गया था। मांगल पांडेय आवेश में आकर 24 मार्च को ही चर्बी ये युक्त कारतूस के खिलाफ युद्ध छेड़ दिए था। जबकि लक्ष्मी बाई , नाना साहब , तात्या तोपे , अजीमुल्ला खां ,बहादुर शाहजफर आदि क्रांतिकारियों ने 31 मई का समय निश्चित किये थे इस योजना का खबर ब्रिटिश को नहीं था, इसी दिन ब्रिटिश खजानों को लूटना था इसके साथ ही साथ बंदियों को भी करवाना था। यह क्रांति मेरठ के अतिरिक्त बंगाल , कानपूर , इलाहाबाद , बनारस आदि जगह में फ़ैल गयी थी।
2) क्रांतिकारियों में प्रभावी नेता का अभाव :– देशी राजाओं का आपसी लड़ाई भी विद्रोह की असफलता के लिए आग में गहि का काम किया। इन सबका का मानना था की जो सैनिकों का नेतृत्त्व करेगा वह राजसी परिवार का होगा इसके साथ ही वह पुरुष हो। कई बार लक्ष्मी बाई को नेतृत्त्व करने से मना किया गया क्योंकि वो एक स्त्री थी वही दूसरी ओर बख्त खां बहादुर क्रांतिकारी होते पर भी साधारण परिवार से आता है यह कहकर भी उन्हें नेतृत्त्व करने नहीं दिया गया। ज्यादातर लोग अपना स्वार्थ सिद्धि के लिए युद्ध कर रहे थे जैसे : अवध को ब्रिटिश कम्पनी में मिल जाने के कारण हजरत महल नाखुश थी , वही कुंवर सिंह ब्रिटिश सरकार के व्यवहार से नाखुश थे तो नाना साहब को पेंशन नहीं मिल रहा था इसलिए युद्ध कर रहे थे।
३)साधन का अभाव :– भारतियों के पास न तो अच्छी शस्त्र और नहीं सूचनाओं को पहुँचाने के लिए कोई अच्छा खासा साधन जबकि अंग्रेजों के पास वो सारी सुविधाएं जो एक युद्ध में जरूरत थी। अच्छी किस्म की राइफल के साथ -साथ तोपें। यहां का धन को लूटकर पहले ही जनता को कंगाल बना चूका था लोग साधनों की पूर्ति कैसे करते ? नाना साहब ने कहा भी था ” नीली टोपी वाली राइफल तो गोली चलने से पहले ही मार देती है। “
4)सिखों एवं गोरखों की गद्दारी :–बहुत से गोरख एवं सिक्ख आपसी मतभेद के कारण अंग्रेजों से विद्रोह के बजाय उनका साथ देना ही उचित समझा। जबकि राजपूत एवं सिक्ख दोनों ही अपने वीरता के लिए विख्यात थे। सिखों ने दिल्ली और लखनाऊ जीतकर क्रांति की कमर ही तोड़ दी। आपसी एकता की कमी के कारण ही हम २०० सालों तक गुलाम बने रहे।
5 ) नरेशों के असहयोग :– अधिकांश विद्रोह नरेशों, सैनिकों, एवं जागीरदारों तक ही सिमित थी। भारत की अधिकाँश जनता कृषक हैं और क्रांतिकारियों ने किसानों से सहयोग लेना उचित नहीं समझा जिससे यह जन -जन की क्रांति नहीं बन सकी। जो लोग युद्ध कर रहे थे उनमें से अधिकांश तो अपनी स्वार्थों की पूर्ति एवं गद्दी बचाने के लिए लड़ रहे थे। एक राजा दूसरे राजा को पराजित कर अपने को शक्तिशाली साबित कर रहा था परन्तु ये नहीं समझ रहा था अंग्रेज हमे आपस में लड़ा रहा है। विद्रोह के समय स्वयं केनिंग ने कहा था :–“यदि सिंधिया भी हमारे खिलाफ विद्रोह में शामिल हो गया तो मुझे कल ही बिस्तर गोल करना पड़ जाएगा। “
6) लॉर्ड केनिंग की उदार निति :– लॉर्ड केनिंग ने अपने कार्यकाल में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पास कराया और अपना उदार निति दिखाया जिससे भारतीय जानता उनके जाल फंस में ये नहीं जान पाए की इन सबका यह चाल है। पी.ई. रॉबर्ट्स ने लिखा है :– उसकी नम्रता न केवल नैतिक रूप से विस्मयकाली थी, वरन राजनितिक रूप से औचित्यपूर्ण थी। जिन भारतीय रियासतों ने १८५७ के विद्रोह अंग्रेजों का समर्थन किया था उनके , लिए १८५८ की घोषणा में साम्रज्ञी द्वारा यह प्रण किया गया था की स्थानीय राजाओं के अधिकार, गौरव तथा सम्मान को वह अपने सम्मान के बराबर ही मानते हैं। इसी के समय में विलय निति को तिलांजलि देते हुए नविन निति अपनायी गयी जिसके अनुसार कुशासन के आरोपी राजाओं को दण्डित का प्रावधान तो था ही , किन्तु उनके राज्य को विलय करने का प्रावधान नहीं था। सार्वजानिक सुधारों के तहत केनिंग ने रेललाइन , सड़कों व् नहरों का निर्माण करवाया।
विद्रोह का प्रभाव :–
१) 1857 की क्रान्ति के बाद भारतियों में आत्म विशवास की जागृति हुयी उनकी सुसुप्त चेतना स्वतंत्रता प्राप्ति के जागृत हुयी। इस क्रांति के बाद आगे के क्रांतिकारियों को व्यापक संगठन की प्रेरणा प्राप्त हुयी। 1857 की क्रांति का जिस निर्ममता के साथ अंग्रेजों ने दमन किया था , उससे उसका असली चेहरा सामने आया। अंग्रेजों के क्रूरता पूर्ण व्यवहार को देखने के बाद भारतवासियों ने अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने संकल्प लिया। इस क्रांति से आंदोलन को भविष्य में एक नई दृष्टि मिली। और भारत में एक सामंती युग का अंत कर एक नवीन युग का जन्म दिया, ईसाई धर्म प्रचार को काम किया गया।
२) भारत सरकार अधिनियम – 1858 के तहत इंग्लैंड में एक “भारतीय राज्य सचिव “की नियुक्ति की गयी तथा इनकी सहायता के लिए एक 15 सदस्यीय मंत्रणा परिषद की गठन की गयी। इन 15 सदस्यों में से 8 सदस्य ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त किये जाने तथा 7 सदस्य कम्पनी के भूतपूर्व सचालकों (कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स )द्वारा चुने जाने की व्यवस्था की गयी।
3 ) 1858 अधिनियम में देशी राजाओं की अखंडता एवं उनकी सुरक्षा की व्यवस्था की गयी देशी राज्यों को उत्तराधिकारी गोद लेने का अधिकार वापस मिल गया। राज्य विलय की अधिनियम को समाप्त किया गया। सभी भारतीय राज्यों ब्रिटिश अधिसत्ता के अंतर्गत ले लिया गया, देशी राज्यों द्वारा कपंनी के साथ की गयी सभी समझौते को मान्यता प्रदान की गयी।
4 ) महारानी ने भारत के सामाजिक तथा धार्मिक मामलों मर तटस्थ रहने तथा सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति करने का वचन दिया। परन्तु अंग्रेजो ने अब फुट डालो राज करो की निति को अपनाया। क्रांति में हिन्दू – मुस्लिम दोनों ने संयुक्त रूप से भाग लिया परन्तु अंग्रेज अब मुस्लिम का पक्ष लेकर दोनों के वैमनस्य की भावना को उत्पन का रहा है यह वैमनस्य भारत के लिए घातक सिद्ध हुयी और भारत का विभाजन होकर भारत – पाकिस्तान का रूप सामने आया।
1857 की क्रांति का नामकरण अथवा विभिन्न विद्वानों का मत :—-
सिपाही विद्रोह , स्वतंत्रता संग्राम , सामंतवादी प्रतिक्रिया , जनक्रांति, राष्ट्रीय विद्रोह , मुस्लिम षड्यंत्र , ईसाई धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध और सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष आदि।
1 ) सर जॉन लॉरेंस एवं सिले के अनुसार :- १८५७ का विद्रोह सिपाही विद्रोह मात्र था।
२)आर. सी मजूमदार :- यह न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय था और न ही और यह स्वतंत्र के लिए संग्राम भी नहीं था।
3 ) वीर सावरकर :– यह विद्रोह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए सुनियोजित युद्ध था।
4) जेम्स आउटम एवं डब्ल्यू टेलर :– यह अंग्रेजो के विरुद्ध हिन्दू एवं मुसलामानों का षड्यंत्र था।
5 ) एल. आर. रीज :– यह धर्मांधों का ईसाई के विरुद्ध षड़यंत्र था।
6 ) विपिन चंद्र :– १८५७ का विद्रोह विदेशी शासन से राष्ट्र को मुक्त कराने का देशभक्तिपूर्ण विद्रोह था।